24 Jul 2009

Posted by sapana


कोनसा मज़हब है ईन भंवरोका?
जो फुलो पर मंडराते रहते है,


कोनसा मज़हब है ईन पंछीओका
जो अपने साथी के साथ ऊड्ते है,

कोनसा मज़हब ईन दरियाओका?
जो चांदके खीलतेही ऊछल पडते है.

कोनसा मज़हब है ईन इन्सानोका?
जो जुदाईमें दिनरात तडपते है?

खुदाने तो इन्सान बनाया था सबको, ,
हमने इन्सानको शेतान बनाये है.

सपना

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7 Responses to “”

  1. Excellent thinking, a good poem

     

    Shenny Mawji

  2. गालिब का एक शेर हॅ
    नक्श फरयादी हॅ किसी की शॉखिये तॅहरीर का
    कागिजी हॅ पॅरहन हर पॅकरे तेहरीर का
    इस का जो बॅकगिराऊंड नहीं जानता वोह कभी इसको समझ नहीं सकता
    आपने खूब गजल लिखी मगर इसका पसमनजर जाने बगॅर कोई इस की गॅहराई तक नहीं पोहॉंच सकता
    कलीम उल्लाह्

     

    Kalimullah

  3. Sapna Bahot khoob likha hain aapne ,dil ki gaherayon se ye awaz meri bhi ati hai jo aaj aap se suna.Aaise hi likhte raheeye aur hume khush karte raheeye.

     

    Shenny Mawji

  4. sapna, thank you . aapne kamaal likha hai!.

     

    manoj gandhy

  5. बहुत खूब कही! हिन्दीमें अच्छी गझल कहेते हो. अभिनंदन!
    सुधीर पटेल.

     

    sudhir patel

  6. अदभुत ब्लोग ! अदभुत रचना !

     

    Jagat Avashia

  7. है मझहब तो है,

    कम्बख्त ईन्सानोने नही पहेचाना

    दिलकी कुशीओका ( मझहब )

     

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